भारतीय संस्कृति में पगड़ी का लुप्त होता गौरव: एक भावनात्मक दृष्टिकोण

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DHAMTARI/ भारत, जो अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है, आज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ उसकी जड़ें धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। कभी गर्व और सम्मान का प्रतीक रही पगड़ी, जो न केवल एक परिधान थी बल्कि भारतीय समाज की गरिमा, प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न हिस्सा भी थी, आज के बदलते परिवेश में उपेक्षित होती जा रही है।
पगड़ी: सम्मान का सिरमौर वो समय भी था जब पगड़ी पहनना केवल एक परंपरा नहीं बल्कि आत्मसम्मान का विषय था। पगड़ी किसी के सिर पर बंधती थी तो उसके साथ बंधता था एक गौरव, एक पहचान, एक इतिहास । राजस्थान के रंग-बिरंगे साफे, पंजाब के शानदारी दस्तार, महाराष्ट्र के राजसी फेटे —ये सिर्फ कपड़े के टुकड़े नहीं थे, बल्कि उसमें पसीना, संघर्ष और संस्कार की खुशबू बसती थी।

पर आज? आज की पीढ़ी शायद यह भूल चुकी है कि “पगड़ी हमारी शान है”। आजकल शादी ब्याह जैसे रस्मों-रिवाजों में भी पहनने से टाला जा रहा है या महज एक रस्म के रूप में खास मौकों पर मजबूरी में पहना जाता है, जैसे किसी बोझ को सिर पर रख लिया हो। क्या हम इतनी जल्दी अपनी जड़ों से कट गए हैं कि हमें अपनी ही पहचान बोझ लगने लगी है?

विरोधाभास का आईना
दूसरे समुदायों की ओर देखें तो मुस्लिम समाज में टोपी और ईसाई समाज में हैट आज भी उनके धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं। वे इसे गर्व से पहनते हैं, क्योंकि उनके लिए यह सिर्फ एक फैशन नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व का प्रतीक है। लेकिन भारतीय परिवेश में पगड़ी, जो कभी एक पूरे समाज का मान-सम्मान थी, अब आधुनिकता की दौड़ में कहीं खोती जा रही है।

यह सिर्फ कपड़ा नहीं, एक विरासत है
पगड़ी को यूँ ही नहीं सम्मान से जोड़ा गया था। ” पगड़ी उछालना ” या ” पगड़ी पर आंच आना” जैसे मुहावरे इस बात के प्रमाण हैं कि यह सम्मान की रक्षा और गौरव का प्रतीक थी। किसी की पगड़ी पर सवाल उठाना मतलब उसकी अस्मिता पर चोट करना। लेकिन आज, हम खुद ही अपनी अस्मिता को भुला बैठे हैं।

कितना विरोधाभासी है ना? हम गर्व से कहते हैं कि हम भारतीय हैं, हिंदूवादी हैं, पर हमारी पहचान के प्रतीकों को संजोने की जिम्मेदारी लेने से पीछे हट जाते हैं। क्या सच में हम उस धरती के वंशज हैं जहाँ पगड़ी के एक पल्लू के लिए युद्ध लड़े जाते थे?

एक पुकार, अपनी जड़ों की ओर लौटने की
पगड़ी सिर्फ एक परिधान नहीं है। यह उस मिट्टी की खुशबू है जिसमें हमारे पूर्वजों के सपने, उनके संघर्ष, और उनकी शान बसी है। जब हम पगड़ी पहनते हैं, तो हम सिर पर न केवल एक कपड़ा रखते हैं बल्कि अपने इतिहास, अपनी संस्कृति और अपनी पहचान का भार उठाते हैं।

आज आवश्यकता है कि हम इस खोती हुई विरासत को फिर से जीवंत करें । पगड़ी को फिर से उसी गर्व और सम्मान के साथ अपनाएँ जैसे हमारे पूर्वजों ने किया था। क्योंकि यह हमारी संस्कृति का ताज है—और ताज कभी धूल में नहीं गिराया जाता।
तो आइए, इस ताज को सिर पर रखें, दिल में सजाएँ, और गर्व से कहें —”मैं भारतीय हूँ!”
✍️ आनन्द स्वरूप ✍️
(संबलपुर धमतरी छत्तीसगढ़)

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